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होलिका दहन क्यों मनाई जाती है ?

Holika Dahan

Holika Dahan

होलिका दहन क्यों मनाई जाती है ?

बुराई पर अच्छाई की जीत और रंगो के महोत्सव होली के त्यौहार के ठीक एक दिन पहले होलिका दहन या छोटी होली मनाई जाती है। हमारे देश में हर त्यौहार के पीछे कई पौराणिक कथाएं होती है। ऐसे ही होलिका दहन के पीछे भी कई किवदंतियां जुडी हुई है जिसमे से सबसे ज्यादा प्रचलित है हिरणकश्यप और प्रह्लाद की कहानी।

पौराणिक कथाओं के अनुसार असुरराज हिरणकश्यप एक बार विजय प्राप्ति के लिए अपने राज पाट छोड़ कर जंगल में तपस्या में लीन हो गया था। तभी देवताओं ने उसके राज्य में आक्रमण कर उसके राज्य पर कब्ज़ा कर लिया। उस समय हिरणकश्यप कि पत्नी गर्भवती थी। ब्रह्मर्षि नारद हिरणकश्यप कि पत्नी को अपने आश्रम ले गए जहाँ वे उसे प्रतिदिन धर्म और विष्णु महिमा के बारे में बताते। यह ज्ञान गर्भ में पल रहे पुत्र प्रहलाद ने भी प्राप्त किया। तत्पश्चात असुरराज ने ब्रह्मा से वरदान प्राप्त कर तीनों लोकों पर विजय प्राप्त कर ली और आश्रम से अपनी पत्नी को अपने साथ ले गया। असुरराज के महल में ही प्रहलाद का जन्म हुआ। बाल्यावस्था में पहुँचते ही प्रहलाद भगवान विष्णु की भक्ति में लीन हो गया। हिरणकश्यप भगवान विष्णु को अपना सबसे बड़ा शत्रु मानता था। जब उसे पता चला की प्रहलाद भगवान विष्णु की पूजा अर्चना करता है तो यह उससे सहा नहीं गया और वह क्रोध से आग बबूला हो उठा। उसने गुरु को बुलाकर कहा की कुछ ऐसा करो की प्रह्लाद विष्णु का नाम रटना बंद कर दे। लेकिन सभी युक्तियाँ व्यर्थ रही। बाद में हिरणकश्यप ने प्रह्लाद को मारने की योजना बनायीं। उसने प्रह्लाद को विष दिया गया, उस पर तलवार से प्रहार किया गया, विषधरों के सामने छोड़ा गया, हाथियों के पैरों तले कुचलवाना चाहा, पर्वत से नीचे फिंकवाया, लेकिन भगवान विष्णु की कृपा से प्रहलाद का बाल भी बांका नहीं हुआ। हार कर हिरणकश्यप ने अपनी बहन होलिका को बुलाकर कहा कि तुम प्रहलाद को लेकर अग्नि में बैठ जाओ, जिससे वह जलकर भस्म हो जाए। चूँकि होलिका को अग्नि से बचाव का वरदान प्राप्त था और वरदान में उसे ऐसी दुशाला मिली थी जिसे ओढ़ने के बाद आग उसे जला नहीं सकती। उसने हिरणकश्यप की बात मान ली और वरदानी दुशाला ओढ़कर प्रह्लाद को गोद में लेकर अग्नि में बैठ गयी। भगवान विष्णु की कृपा से वो दुशाला उड़ कर प्रह्लाद पर चली गयी और होलिका वहीं जलकर राख हो गयी। तब से होलिका दहन पर्व को बुराई पर अच्छाई की जीत के रूप में मनाया जाने लगा।

 

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